आत्मिक बल बढ़ाने के लिये यह अत्यावश्यक है। कि हम विकारो से अपने को बचाये ।हम बुरे कार्य कों संसार से छिपा सकते है। लेकिन अपने आप से नही बुरे कार्य के फलस्वरुप मन निर्बल हो जाता है। निर्बल मन की कल्पनायें हमारी इंच्छाओ के प्रतिकूल होने लगते है। इस प्रकार आत्मा अपने आप को दुष्कृत्यो के लिये दंड देते है। शुभ कार्य करने से मनुष्य शुभ कल्पनाये उठते है। जो आगे बढ़ाते रहते है। इस प्रकार पुण्य अपने आप मनुष्य के कल्याण में फलित होते है। दुर्बल मन की कल्पना उसके समक्ष वीभत्स चित्र खड़ा करते है। मनुष्य कल्पना करने लगता है। कि उसका रोग बढ़ेगा तो रोग बढता ही रहता है। रोग ही रोग को पकडे रहते है। ये सब दुष्कृत्यो के लिए दंड देने की आन्तरिक मन की इच्छा का परिणाम है।