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 कहा जाता है कि जनता दल की जीत के बाद मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री बनने वाले थे लेकिन बिहार के लालू यादव ने टांग अड़ा दी। सेहरा विश्वनाथ प्रताप सिंह के माथे बंधा। इसके

नई दिल्ली : नेताजी पहलवान थे। लिहाजा दांव-पेच जानते थे। राजनीति के अखाड़े में भी माहिर खिलाड़ी रहे। 1989 में बोफोर्स विरोध के दम पर मांडा के राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह ने गैर कांग्रेसी सरकार बनाई तो मुलायम सिंह यादव जैसे क्षत्रपों का रसूख भी बढ़ा। लोकसभा चुनाव के ठीक बाद जब उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए तो जनता दल जीत गई। वीपी सिंह ने अजित सिंह को सीएम और मुलायम सिहं यादव को डिप्टी सीएम घोषित कर दिया लेकिन पहलवान अड़ गया। मुलायम ने सियासी दांव खेलते हुए अजित सिंह के पाले के विधायक तोड़ लिए और विधायक दल के नेता बन बैठे। वीपी सिंह को मुलायम में अपना विरोधी दिखता था। उधर पड़ोसी बिहार में लालू प्रसाद यादव का उदय हो रहा था। लालू और मुलायम तो आज समधी हैं लेकिन दोनों ने एक दूसरे को भी निशाने पर लिया और दोनों वीपी सिंह के निशाने पर कभी न कभी रहे। कहा जाता है कि लालू यादव के सख्त ऐतराज के कारण ही मुलायम पीएम बनते -बनते रह गए। लालू और मुलायम देवीलाल के ज्यादा करीबी माने जाते थे। इसलिए भारतीय राजनीतिक इतिहास का जब निर्णायक मोड़ आया तो वीपी सिंह ने मुलायम को सेहरा नहीं लेने दिया। शह-मात के खेल में राजा ने लालू को एक ऐसा काम सौंप दिया जिसके बूते वो आज भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के विरोध का सबसे विश्वसनीय प्रतीक माने जाते हैं। पूरा किस्सा जानते हैं। जब वी.पी. सिंह और देवीलाल की अदावत अगस्त 1990 में खुलकर सामने आ गई तो लालू यादव का स्वाभाविक विकल्प देवीलाल और चंद्रशेखर का साथ देने का होना चाहिए था। आखिर उन दोनों व्यक्तियों ने कुछ ही महीनों पहले बिहार का मुख्यमंत्री बनने में उनकी मदद की थी। वीपी सिंह के भरोसे रहकर तो लालू यादव का कुछ होना नहीं था। लेकिन लालू यादव ने राजनीति के कुछ पाठ बहुत पहले कंठस्थ कर लिये थे। उनमें से एक था कि दोस्ती और दुश्मनी कभी हमेशा के लिए नहीं होतीं और दूसरा यह कि राजनीति में स्वार्थ सर्वोपरि होता है। उन्होंने वीपी सिंह का साथ दिया।

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