आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ने के नाम पर सरकार जनता पर राज्य का आंतकवाद थोप रहा है लेकिन विरोध जताने वालों को अब मनमाने तरीक़े से आंतकवादी क़रार दिया जा सकता है विपक्ष की चिंता और सरकार की दलीलों के बीच यूएपीए ऐक्ट में 6 संशोधन तो पारित हो गया लेकिन इसके साथ ही आतंकवाद ख़त्म करने के नाम पर बनाए गए इस क़ानून को लेकर एक बार फिर से विवाद शुरू हो गया है. यहां तक कि ये विवाद बहस से आगे निकलकर देश की सबसे बड़ी अदालत में दो जनहित याचिकाओं की शक्ल में पहुंच गया.
सुधारात्मक दंड प्रणाली में (जैसे भारत में है।) सख्त कानून बनाने के पीछे की मशा अपराधियों में व्याप्त कराना होती है। आतंकवाद के खिलाफ पहले टाडा फिर मोटा लाया गया लेकिन दोनो को खत्म करना पडा इसका मूल कारण था कि इन कानूनों में सजा की दर बेहद कम थी इसके बाद यूएपीए (गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम कानून) को और संख्त बनाया गया। यह कानून नाम से तो सामान्य लगता है। लेकिन आज यह राज्य की शक्ति का सबसे घातक प्रहार माना जाता है। क्योकि इसके तहत किसी को भी अपराध के अंदेशे में महीनो जेल में रखा जा सकता है। यह कानून राज्य को निबंधि शक्तिया देता है। क्या इसके बेजा प्रयोग सें संविधा में वर्णित मौलिक अधिकारो का खुलकर उल्लघंन हो रहा है। क्या ऐसे आरोप पुलिस में बुद्धि का प्रयोग करता है। आंकडे बताते है। कि इस कानून के तहत पिछला 7 वर्षो में कुल 6700 केस किया गए लेकिन 150 ही दोषी करार हुए है। इस कानून में पुलिस के बेलगाम विवेक पर अंकुश लगाना जरुरी है।