आज बहुत से मनुष्य समझते है। कि संसार में यानी गृहस्थ व्यवहार में रहते हुए मनुष्य से जाने अन्जाने कुछ ना कुछ पाप कर्म होते रहना तो स्वाभाविक बात है। वे समझते हैं। कि एक ओर तो वे अपने सांसारिक जीवन में विकर्म करते जाएं और दूसरी ओर भक्ति पूजा प्रार्थना दान पुन इत्यादि करते जांए तो इन अच्छे कर्मो से बुरे कर्मो का खाता कट जाएगा। वे भूल जाते है, कि पाप की कमाई मे से दान इत्यादि करना भगवान को भी रिव्श्रत देने की कोशिश करने के बराबर है। मंदिर का कलयुगी पुजारी भले ही अपने स्वार्थ के लिए ऐसे धन को स्वीकार कर ले किन्तु भगवान कभी स्वीकार नही करता। इसी रीति मनुष्य को अपने अच्छे और बुरे दोनो कर्मो का फल भोगना पडता है। और अच्छे कर्म करने से बुरे कर्मो की सजा सें मुक्त नही मिल सकती। प्रार्थना करने वाले भक्त भी प्रायः एक ही या दो चार प्रकार की प्रार्थनाएं नित्य प्रति दोहराते रहते है। ठीक उसी तरह जैसे कि माला फेरने वाले बारंबार उन्ही मनकों को घुमातं रहते है।