एक दार्शनिक के अनुसार सृष्टि रंगमंच एक दर्पण है। जैसे दर्पण में जो चीज जैसी होती हैं, वैसी ही दिखाई देती है। इसी प्रकार इस सृष्टि रंगमंच पर हंसने वालो के लिए खुशी ही खुशी है। और रोने वालो के लिए रोना ही रोना है। तो क्यो न हम सदैव हंसते हुए अपना पार्ट बजाएं क्योकि गायन भी है कि जिसने रोया उसने खोया। किन्तु एक बात का ध्यान भी अवश्य रखे कि हंसते कही हम ही हंसी के पात्र न बन जाएं। बेहद के नाटक में जो भी दृश्य आए उसके स्वागत के लिए हम सदैव तत्पर रहें। अतः जीवन में यदि कोई अप्रिय घटना घटती है। तो हम उससे दुखी अथवा अशांत न हो क्योकि वह तो बेहद के ड्रामा की भावी थी यदि दुख की घटना के कारण हम रोते या चिल्लाते है तो उससे कोई लाभ नही होता है।