सभी प्रज्ञावान मनुष्य इस बात को स्वीकार करते है। कि सृष्टि परमात्मा की रचना है। और परमात्मा परमात्मा सपूर्ण है। तो क्या संपूर्ण परमात्मा भी दोषयुक्त विकृत सृष्टि रचते है। जहां आरंभ सतयुग से ही असुरो का आंतक और अशांति का विस्तार होता है। तब तो सृष्टि के आदिकाल को सतयुग कहना ही निरर्थक हो जाएगा क्योकि साधारण मनुष्य भी अपने बच्चो के लिए जब एक घर बनाता है। तो उनकी सुख सुविधाओ को पूरा ध्यान रखकर टिकाऊ घर बनाता है। हम मनुष्य आत्माओ के लिए परमात्मा के द्वारा रचा गया सुन्दर घर है तो क्या परमात्मा की रची सृष्टि अपने प्रांरभ से ही ऐसे दुष्टो से भरी हुई है कि उनका अंत करने के लिए स्वयं भगवान को अवतरित होना पडता है और वो भी एक बार नहीं बल्कि सतयुग में ही कई बार तो फिर उस युग को सतयुग कहने का औचित्य ही क्या रहा। जहा इतनी बुराइया है।