इसमें संदेह नही कि कर्मो की गति अति गहन हैं। श्रेष्टाचारी बनने के लिए कर्म अकर्म विकर्म की गति को समझना तथा पापकर्मो के दुख रुपी दंड की पूरी जानकारी आवश्यक है। आज संसार में भक्तो की कमी नहीं किन्तु फिर भी दिनोंदिन पाप कर्म तथा दुख अशांति का बढ़ते जाना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। कि मनुष्य मात्र इस विषय में सत्य ज्ञान से वंचित है। भविष्य में पापकर्म न हो इसके लिए अच्छे और बुरे कर्मो का ज्ञान तो आवश्यक है ही किन्तु पिछले विकर्मो द्वारा उत्पन्न हो चुके बुरे संस्कारो को योग द्वारा भस्म करना भी अति आवश्यक है।
विकर्मो का भुगतान सजा द्वारा
अपने पापकर्मो का दंड मनुष्यात्मा को गर्भ में जीवनकाल में तथा मृत्यु के समय दुख और अशांति के रुप में जन्मजन्मांतर मिलता ही रहता है। जैसे सुख की प्राप्ति किन्ही अच्छे कर्मो के कारण होती है। वैसे ही दुख का कारण भी मनुष्य के अपने ही पिछले विकर्म होते है। इसलिए कहावत प्रसिद्ध है, आत्मा स्वयं अपना मित्र है और वह स्वयं ही अपना शत्रु है।