आध्यात्मिकता का वास्तविक रुप यह है जिसके द्वारा व्यक्ति के मन वचन, कर्म, तन, धन, समय, श्वास, शक्ति का इस प्रकार से प्रबन्धन किया जाये कि इसके द्वारा प्रतिपल उसका भी और समाज का भी हित होता रहे। जैसे पूरे शरीर का ध्यान रखे बिना शरीर के किसी एक अंग को सुदृढ नही बनाया जा सकता वैसे ही समाज को सुदृढ़ किये बिना व्यक्ति का हित सम्भव नहीं। सन्त विनाबा भाव जी ने अपने जीवन के अनुभव में लिखा है कि मैने अपना जीवन घ्येय हिमालय की कन्दराओं में तपस्या करने का बनाया था। परन्तु महात्मा गांधी जी ने कहा कि समाज की समस्याओं से मुँह मोड कर और छिप कर यूँ जीवन व्यतीत करना निरर्थक है इसलिए अपने आध्यात्मिक ज्ञान का कर्म के मंच पर प्रयोग करो और जनता के दुख दूर करो। गाँधी जी के इन शब्दों ने इन्हें बहा्रचर्य तथा अध्यात्म के साथ लोक सेवा का भी जोडने का जो महामन्त्र दिया वह अन्ततोगत्वा बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ।