अधिक बोलना पोल खोल देना है कि व्यक्ति कैसा हैं, उसकी कमजोरिया कौन कौन सी हैं, व्यक्ति मतलबी व लालची तो नहीं परन्तु कम बोलना कमजोरियों को ढ़क देता है। अधिक बोलना ढ़ोल है। कम बोलना ढ़ाल है। यदि विकारो व अवसादों से ग्रसित कोई व्यक्ति किसी नए स्थान पर जाता हैं और चाहता हैं कि उसकी कमजोरियों का लोगो को पता न चले तो उसे सांत चुप रहना चाहिए। अधिक बोलकर संस्कारवान मानव भी गलतिया कर जाता है और ना बोल कर एक विकारी व संस्कारहीन व्यक्ति भी सम्मान पा लेता है। मौन समझदारी का लक्षण है। और सर्वोतम भाषण है। अनुपयुक्त समय और स्थान पर चुप रहना वहां दिए जाने वाले श्रेष्ठ भाषण से कही बेहतर है। बोलते समय शारीरिक व मानसिक शक्तियों का प्रयोग किया जाता है।
शारीरिक शक्ति का व्यय थकान लाता है। जबकि मानसिक शक्ति के व्यय से दो में से एक बात होती है। यदि बोलते हुए सद्भावना या कल्याण की भावना हैं तो मानसिक शक्ति और सुदृढ़ होती है। और यदि बोलते हुए स्वार्थ दुर्भावना अहम भाव इत्यादि है। तो मानसिक दुर्बलता, थकान अवसाद या चिंता आदि आती है।