आत्मा और शरीर एक दुसरे के पूरक है। बिना आत्मा के शरीर निर्जीव है। और बिना शरीर के आत्मा कर्म करने में असहाय यानि एक दूसरे का सहारा चाहिए प्रासंगिकता बानाये रखने के लिए। आत्मा और शरीर का केवल इतना ही संबंध है। अवश्य ही शरीर आत्मा के लिए मंदिर सदृश है। और हम इस मंदिर के ट्रस्टी। मंदिर जितना साफ शुद्ध होगा उसमें निवास करने वाली आत्मा उतनी ही सतुष्ट। शरीर को शुद्ध रखने के लियं खान पान शुद्ध होना अत्यन्त आवश्यक है।
जब आत्मा की एक जन्म की उद्वेश्यपूर्ति हो जाती है। आत्मा शरीर का त्याग देती हैं और शरीर मृत्यु को प्राप्त होता है। आत्मा के प्रवेश से पूर्व भी जीवन एक पिंड मात्र यानि जड था। और आत्मा के चले जाने के बाद पुनः निष्क्रिय यानी जड़ा हो जाता है। आत्मा की उपस्थिति ही जीव को जीवन प्रदान करती है। अतः केवल आत्मा ही चैतन्य स्वरुप है। पूर्णाता पर शरीर अपने पचतत्वो पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश में विलीन हो जाता है।