धार्मिक इतिहास के पन्ने पलटने सें पता चलता हैं कि द्वापर युग के आरंभ से लेकर अब तक ब्रह्मचर्य को प्रायः व्यक्तिगत साधना के अंग के रुप में ही अपनाया जाता हैं अथवा इसें यम नियमो के अंतर्गत आत्मषुद्धि के लिए एक नियम के रुप में ही लिया जाता हैं। साधु सुन्यासी भिक्षु और पादरी मुक्ति को लक्ष्य मानकर तथा बाल बच्चों इत्यिादि कों बंधन जान कर घरबार के साथ साथ स्त्री का भी संन्यास करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करते रहे हैं।भारत में धर्मप्रेमी को लोग इसका संबंध शारीरिक आयु सें जोडकर तथा इसे शास्त्रआज्ञा मानकर शारीरिक जीवन के पहले करीब 23 साल में विद्या अध्ययन अर्थ या फिर 48 साल के आयु के बाद मुक्त की प्रत्यार्थ भी इसका पालन करते रहे हैं